ग्रहों के बल का मापक “षड्बल”

षड्बल

षड्बल वैदिक ज्योतिष में ग्रहों के बल का मापक होता है, जिसका प्रयोग समस्त ग्रहों की 6 प्रकार की शक्तियों व ऊर्जा का आकलन करने के लिए किया जाता है। हमारे इस लेख में आज आप षड्बल, चेष्टाबल और ग्रहों  के बल का मापक व लाभ के बारे में विस्तारपूर्वक जानेंगे।  

षड्बल व चेष्टाबल जानने से पहले आपको ये समझना होगा कि षड्बल की गणना करते हुए दोनों छायाग्रह राहु- केतु के अलावा दूसरे 7 ग्रहों (सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, शुक्र, गुरु और शनि) की समस्त शक्तियों के साथ ही उनकी गतिशीलता की गणना भी की जाती है। 

फिर ऐसा करके जब हर ग्रहों को अंक दिए जाते हैं तो, उन ग्रहों में से सर्वाधिक अंक हासिल करने वाला ग्रह सर्वार्थ बली हो जाता है। इसके बाद उस बली ग्रह की दशा और अंतर्दशा से व्यक्ति को संपूर्ण फल प्राप्त होने में मदद मिलती है। परंतु इसके विपरीत जब किसी परिस्थिति में षड्बल ठीक इससे विपरीत हो जाए तो उस अवस्था में वो ग्रह दुर्बल हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप वो ग्रह व्यक्ति को अपना सम्पूर्ण रूप से फल देने में भी पूरी तरह असफल रहता है।

अब घर बैठे कॉल पर हमारे विशेषज्ञों से जुड़े और पाएं अपने जीवन की सभी समस्याओं का समाधान। 

Table of Contents

ग्रहों के बल का मापक : षड्बल

षड्बल ग्रहों के 6 प्रकार के बल के माप निकालने की गणना होती है। जो विस्तार पूर्वक कुछ इस प्रकार है:- 

  1. स्थान बल/ स्थानीय बल : 

स्थान बल जिसे हम स्थानीय बल भी कहते हैं, उसकी मदद से जातक को ग्रह शक्ति प्राप्त होती है। सरल शब्दों में कहा जाए तो ये बल किसी भी ग्रह के एक जातक की जन्म कुंडली में विशेष शुभ स्थिति में आने से प्राप्त होता है। ज्योतिष शास्त्र में किसी ग्रह के कुंडली में मूल त्रिकोण, मित्र राशि, स्वराशि, उच्च राशि या फिर ग्रह षडवर्ग में विद्यमान होने पर ये शुभ स्थिति बनती है।   

  1. दिगबल : 

दिगबल, ग्रह का आशय बल और वो शक्ति है, जो उस विशेष ग्रह को जातक की कुंडली में किसी विशेष स्थान पर दिग्बली बनाती है। ज्योतिष नियम से समझें तो, सूर्य और मंगल कुंडली के दशम भाव में दिगबल प्राप्त करते हैं। परंतु चंद्र और शुक्र सुख यानी चतुर्थ भाव में भाव में दिगबली होते है। वहीं बृहस्पति और बुध लग्न में होने पर दिगबल प्राप्त करता हैं। इसके अलावा कर्म फलदाता शनि कुंडली के सप्तम भाव में दिग बली  बनता है। 

  1. काल बल : 

काल बल से हम किसी ग्रह की शक्ति का निर्धारण करते हैं। इन ग्रहों की शक्ति एक निर्धारित समय पर बढ़ती या घटती है। ज्योतिष नियमनुसार हर पाप ग्रह कृष्ण पक्ष में बलवान होता है, जबकि शुभ ग्रह शुक्ल पक्ष में बलवान होता हैं। वहीं विशेष ग्रह की बात करें तो चंद्र, मंगल और शनि खासतौर से रात्रि के पहर में बलवान माने जाते हैं। इसके कारण यदि किसी जातक का जन्म रात्रि पहर में होता है, उसकी कुंडली में चन्द्रमा, मंगल और शनि बलवान होंगे। परंतु  सूर्य, शुक्र और गुरु को दिन के पहर में बलि माना गया हैं। इसके अतिरिक्त बुध ग्रह को रात और दिन दोनों पहरों में बली माने जाने का विधान है। 

  1. चेष्टा बल : 

चेष्टा बल आमतौर पर ज्योतिष में गतिशील बल होता है। नियम ये है कि मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि को चेष्टा बल केवल उनकी वक्री अवस्था में ही प्राप्त होता है। जबकि सूर्य और चंद्रमा अपना चेष्टाबल सूर्य के मकर, कुंभ, मीन, मेष, वृषभ अथवा मिथुन में अर्थात उत्तरायण में होने पर प्राप्त होता है।  

  1. नैसर्गिक बल : 

नैसर्गिक बल एक प्रकार से ग्रहों को प्राकृतिक बल प्रदान करने में मदद करता है। वैदिक ज्योतिष के नियमनुसार समस्त ग्रहों में से सूर्य देव को जहाँ सर्वाधिक बल, वहीं शनि को सबसे कम बल प्राप्त होता है। इसके अलावा एक नियम ये भी है कि राहु-केतु को छोड़कर 7 ग्रह: सूर्य, चंद्रमा, शुक्र, गुरु, बुध, मंगल और शनि अपने क्रम के अनुसार ही सर्वाधिक व कम बली होते हैं।

  1. दृष्टि बल : 

दृष्टि बल वो बल होता है जो किसी भी शुभ ग्रह की दृष्टि से तो बढ़ता है, परंतु पाप ग्रह की दृष्टि से ये बल घटता है। 

षड्बल की गणना के लाभ व महत्व  

  • षड्बल की गणना की मदद से ज्योतिषी जातक की कुंडली अनुसार किसी भी घटनाओं से संबंधित काल की सटीक भविष्यवाणियां कर सकता है। इस कारण ये कहना गलत नहीं होगा कि षड्बल की मदद से की जाने वाली भविष्यवाणियों में  त्रुटियों होने की संभावना शून्य व बेहद कम हो जाती है।  
  • ग्रहों के बल का माप करते समय ये निर्णय लेना आसान होता है कि जातक की कुंडली का अध्ययन करते समय उसके लग्न, चंद्रमा तथा सूर्य में से आधार किसे बनाया जाएं। यहाँ आमतौर पर ज्योतिष नियम अनुसार इन तीनों में से जो सबसे अधिक बली हो, उसे ही फलित के लिए प्रयोग किया जाता है।  
  • षड्बल की पिंडायु अथवा अंशायु विधि से कोई भी ज्योतिषी जातक की आयु की गणना करने में समर्थ होता है। इस विधि से जातक की आयु गणना का निर्धारण करना सरल रहता है। 
  • षड्बल की मदद से ग्रहों की अंतर्दशा और महादशा निकालते हुए फलित करना आसान रहता है। क्योंकि इस प्रक्रिया में वो ग्रह जो षड्बल में बली होता है वो दशा-अंतर्दशा के दौरान जातक के लिए फलदायक रहता है। 

षड्बल अनुसार ग्रहों की अवस्था 

  • मानव जिस तरह अपने जन्म से लेकर मरण तक कुल 4 प्रकार की अवस्थाओंजैसे: बाल, कुमार, युवा एवं वृद्ध अवस्था से गुजरता है। बिलकुल उसी तरह ज्योतिष विज्ञान में हर ग्रह एक कुंडली में अपनी कुछ अवस्थाओं से गुजरता है, जो मानव की तरह ही बाल, कुमार, युवा एवं वृद्ध अवस्था होती हैं। इन अवस्थाओं के आधार पर ही न केवल जातक की कुंडली में ग्रह अपना प्रभाव दिखाते हैं, बल्कि उन्हें अपनी अवस्था के अनुसार ही फल देने में भी समर्थ होते हैं। 
  • ये देखा जाता है कि मनुष्य सबसे अधिक अपनी कुमार व युवा अवस्था में सबसे ज्यादा शारीरिक रूप से मजबूत, सशक्त व बलवान होता है। इसी प्रकार ग्रह भी अपनी युवा व कुमार अवस्था में सबसे अधिक मजबूत, सशक्त और बलशाली हो जाता है। 
  • ज्योतिष के नियमनुसार, जातक की जन्म कुंडली में किसी भी ग्रह का शुभ बलशाली होना, उस जातक को शुभ फलदायी परिणाम देने में मदद करता है। जबकि किसी शुभ ग्रह के कमजोर व दुर्बल होने से जातक को शुभ फल प्राप्त नहीं होते हैं। इसी कारण हर कुंडली में शुभ ग्रहों का बलवान व मजबूत होना सबसे पहले देखा जाता है। 
  • मनुष्य को अपनी उम्र के अलग-अलग चरणों के अनुसार ही अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। ठीक उसी प्रकार ज्योतिष में ग्रहों की अवस्थाएं उन ग्रहों के कुछ निर्धारित अंशों के अनुसार ही तय की जाती है। बता दें कि वैदिक शास्त्रों में हर ग्रह को 30-30 अंश प्राप्त होते हैं।

आइए, विस्तार से जानते हैं कि ग्रहों की किस अवस्था में कितने अंश होते हैं। 

षड्बल: ग्रह अंश व अवस्थाएं 

यदि कोई ग्रह विषम राशि में होता है तो उस स्थिति में:- 

  • 0 से 6 अंश तक बाल्यावस्था
  • 06 से 12 अंश तक कुमार अवस्था 
  • 12 से 18 अंश तक युवा अवस्था
  • 18 से 24 अंश तक वृद्धावस्था 
  • 24 से 30 अंश तक मृत अवस्था

यदि कोई ग्रह सम राशि में होता है तो उस स्थिति में:-

  • 00 से 06 अंश तक मृत अवस्था
  • 06 से 12 अंश तक वृद्धावस्था
  • 12 से 18 अंश तक युवा अवस्था 
  • 18 से 24 अंश तक कुमार अवस्था वृद्धावस्था
  • 24 से 30 अंश तक बाल्यावस्था

ध्यान देने योग्य बातें: कुछ मंत मतांतर से ग्रहों को 18 से 24 तक प्रौढ़ावस्था, 24 से 30 तक वृद्धावस्था मानते हैं और जब शून्य अंश होता है तो उसे मृतकावस्था मान लिया जाता है। उपरोक्त विवरणों से स्पष्ट होता है कि शुभ ग्रहों को उनकी अवस्था के मुताबिक मजबूत व सशक्त होना ही जातक को शुभ फल प्राप्त कराता है। 

षड्बल: ग्रहों की अवस्थाएं एवं प्रभाव 

  • अवस्था का मतलब स्थिति या हैसियत होती है। मानव जीवन के मुताबिक ही ग्रहों की विभिन्न राशियों के विभिन्न अंशों पर विभिन्न पांच अवस्थाएं बाल, कुमार, युवा, वृद्ध और मृत माना गया है। 
  • ज्योतिष विज्ञान के मुताबिक ग्रहों की अवस्था में उनका प्रभाव अलग-अलग होता है। जैसे:
    • बाल्यावस्था में ग्रहों की शक्ति एक चौथाई होती है, 
    • किशोरावस्था में यह आधा होता है, 
    • युवावस्था में पूर्ण, 
    • वृद्धावस्था में ग्रहों की शक्ति न्यूनतम होती है और,
    • मृत अवस्था में कोई परिणाम प्राप्त नहीं होता है। 
  • कई ज्योतिष विद्वानों के अनुसार राशियों के द्रेष्काण के मुताबिक ग्रहों की शारीरिक अवस्था माननीय होती है। तीन द्रेष्काण के मुताबिक बाल, मध्य और वृद्धावस्था को तीन अवस्था मानते हैं। सम राशियों में जहां विपरीत क्रम से गिनती होती है अर्थात पहला द्रेष्काण वृद्धावस्था, दूसरा द्रेष्काण मध्यावस्था और तीसरा द्रेष्काण बाल्यावस्था होती है। जहां सूर्य और मंगल बाल अवस्था में बेहतर परिणाम देते हैं तो वहीं गुरु और शुक्र मध्य अवस्था में श्रेष्ठ परिणाम देते हैं। बात करें बुध की तो यह तीनों अवस्थाओं में श्रेष्ठ नतीजे देता है और चंद्र और शनि वृद्धावस्था में बेहतर नतीजे देने वाले होते हैं। 
  • बात करें मानसिक स्वभाव या प्रकृति के मुताबिक ग्रहों की दस अवस्थाएं बताई गई हैं। इसके पीछे की वजह भी ज्योतिष विज्ञान में साफ़ तौर पर उल्लेखित है। वहीं विद्वानों के अनुसार इन दस में से नौ अवस्थाओं को ही व्यवहारिक माना जाता है। समय के साथ कई ज्योतिषचार्यों ने इनकी परिभाषाओं को और भी सरल बना दिया है। 

आइये अब ग्रहों की इन सभी दस अवस्थाओं के बारे में विस्तारपूर्वक चर्चा करते हैं:

आपकी कुंडली में ग्रहों की स्थिति कितनी शुभ-अशुभ? जानें मंगल भवन के विशेषज्ञ ज्योतिषियों से! 

षड्बल: ग्रहों की दस अवस्थाएं

प्रश्न तंत्र में नीलकंठ ने बताया है कि दीप्तादि के अंतर्गत दस अवस्था के माध्यम से ही भविष्यवाणियां करनी चाहिए। ऐसी भविष्यवाणियों के गलत होने की आशंका बेहद कम रहती है। 

  1. दीप्त : 

अपने मूलत्रिकोण या उच्च राशि में स्थित ग्रह को दीप्त कहते हैं। 

  1. मुदित :

जो ग्रह अपने मित्र राशि में होता है, उसे मुदित कहते हैं। 

  1. स्वस्थ : 

जो ग्रह अपनी ही राशि में स्थित होता है उसे स्वस्थ कहते हैं। 

  1. शांत : 

जो ग्रह शुभ ग्रह की राशि में होता है, वह शांत कहलाता है। 

  1. शक्त : 

स्फुट रश्मि के जालों से शुद्ध ग्रह को शक्त कहते हैं। 

  1. प्रपीड़ित : 

जो ग्रह दूसरे ग्रहों से पराजित नहीं होता है, उसे प्रपीड़ित कहते हैं। 

  1. दीन : 

शत्रु नवांश में होने पर या शत्रु की राशि में होने पर ग्रह दीन की संज्ञा दी जाती है। 

  1. खल : 

जो ग्रह पाप ग्रहों की राशि के मध्य होता है, उसे खल कहते हैं। 

  1. भीत : 

जो ग्रह नीच ग्रहों के साथ विराजमान होता है, उसे भीत कहते हैं। 

  1. विकल : 

जो ग्रह अस्त होकर स्थित रहता है, उसे विकल कहा जाता है। 

जागृत और सुप्त आदि स्थितियों के अनुसार कोई भी ग्रह विषम राशि के प्रथम भाग 10 अंश तक पूर्ण जागृत, मध्य भाग 10 से 20 अंश तक, तंद्रा अर्थात जागृत और सुप्त के बीच की अवस्था और राशि के अंतिम हिस्से 20 से 30 हिस्से तक सुषुप्तावस्था में होता है। वहीं इसके विपरीत सम राशियों में पहला भाग सुप्त, दूसरा भाग तंद्रा और तीसरा भाग जागृत स्थिति में होता है। 

इसके अलावा अगर बात करें ज्योतिषियों के दूसरे मतों की तो, उसके अनुसार उच्चांश ओर स्व नवांश में ग्रह जागृत स्थिति में, मित्र के नवांश में स्वप्न की अवस्था में, शत्रु के नवांश में सुप्तावस्था में कहे जाते हैं। 

षड्बल: ग्रहों की अवस्था का भाव 

6 अन्य प्रकार की अवस्था में ग्रहों का मनुष्य की भांति अपनी मानसिक स्थिति का विभिन्न भाव में होना।  

  1. लज्जित : 

पंचम भाव में उपस्थित ग्रह यदि शनि, मंगल, राहु, केतु या सूर्य से जुड़ा हुआ है तो वह लज्जित कहलाता है। 

  1. गर्वित : 

यदि कोई ग्रह मूल त्रिकोणस्थ हो अथवा उच्चस्थ हो तो उसे गर्वित अवस्था कहते हैं। 

  1. क्षुदित : 

यदि कोई ग्रह शनि से युत है, शत्रु राशि में है, शत्रु राशि से युत कर रहा है तो वह क्षुदित अवस्था में कहलाता है। 

  1. तृषित : 

तृषित से आशय है कि यदि ग्रह जल तत्व की राशि में है और उस पर शुभ ग्रहों की बजाय अशुभ ग्रहों की दृष्टि है तो इसे तृषित कहते हैं। 

  1. मुदित : 

यदि कोई ग्रह मित्र राशि में शुभ ग्रह से युत अथवा दृष्ट है तो इसे मुदित कहते हैं। 

  1. क्षोभित : 

अगर ग्रह सूर्य के साथ है और अशुभ ग्रह से दृष्ट अथवा युत है तो यह क्षोभित कहलाता है। 

षड्बल फलित  

ज्योतिष शास्त्र के विशेषज्ञ किसी व्यक्ति की जन्म कुंडली का अध्ययन कर उसमें उपस्थित बलवान औ दुर्बल ग्रहों का पता लगाते हुए ग्रहों की अवस्थाओं व उनके भावों का विचार करते हैं। इसके बाद ही वे एक ग्रह की वजह से होने वाले प्रभावों और दुष्प्रभावों के बारे में जानकारी देने में सक्षम रहते हैं। क्योंकि जहाँ कुंडली में दुर्बल ग्रह सभी शुभ प्रभावों को भी कमजोर कर देता है और वहीं मजबूत ग्रह उनके कारकतत्वों से जुड़े प्रभावों में वृद्धि करने माँ कार्य करता है।  

वहीं बात करें क्षोभित अथवा क्षुदित ग्रह का तो यह जिस भाव में होता है, उन सभी भावों का नाश कर देता है। अगर यह दशम भाव में ग्रह लज्जित, क्षोभित अथवा क्षुदित अवस्था में होगा, तो ऐसे जातक हमेशा दुख और परेशानियों से घिरे रहेंगे। अगर पंचम भाव में ग्रह ऐसी स्थिति में है तो संतान की मृत्यु हो जाएगी अथवा केवल एक बच्चा भी जिंदा रह सकेगा। अगर तृषित अथवा क्षोभित अवस्था में होगा तो जातक के जीवनसाथी की मृत्यु निश्चित है। 

वहीं गर्वित ग्रह की चर्चा करें तो इससे व्यापार में वृद्धि होती है। जातक की आर्थिक प्रगति होती है। नया मकान, भूमि-प्रॉपर्टी, राजकीय संबंध, कला, विज्ञान, पद-प्रतिष्ठा में वृद्धि होती है। गर्वित ग्रह सदैव खुशी प्रदान करता है। मुदित ग्रह पत्नी का सुख, जमीन-जायदाद, रिश्तेदारों का सुख, शाही जीवन शैली का सुख देता है। जातक के शत्रुओं का नाश होता है एवं उसे धन के साथ ही ज्ञान की भी प्राप्ति होती है। 

लज्जित ग्रह जातक को भगवान से दूर करता है। बुद्धि भ्रष्ट करता है। संतान को नुकसान पहुंचता है। बुरी संगत, बुरे लोगों में रुचि बढ़ती है। जातक को अच्छी बातें भी बुरी लगती है। उसकी आर्थिक तरक्की में बाधा उत्पन्न होती है। उसके स्वभाव में दुष्टता, पैरों में दर्द और बड़ा क्रोध, धन दौलत, आदि में भी कमी होने लगती है। 

क्षुदित ग्रह के कारण आर्थिक संकट, पतन, गुस्सा, रिश्तदारों से दुख मिलता है। दुश्मन मजबूत होते हैं। शारीरिक क्षमता में कमजोरी आती है। मानसिक क्लेश बढ़ता है। 

वहीं तृषित अवस्था में महिलाओं के साथ गलत संबंधों या व्यवहार की वजह से कष्ट, रोग होता है। धन का नुकसान होता है। शारीरिक समस्या होने की आशंका रहती है। गलत लोगों की वजह से प्रतिष्ठा व मान-सम्मान को भी आघात पहुंचता है। 

आइये अब जानें आखिर कैसे ग्रहों की अवस्थाओं से फलित संभव है। 

षड्बल: ग्रहों की विशिष्ट अवस्था अनुसार फलादेश

स्वयं महर्षि पराशर समेत कई अलग-अलग व ज्ञानी ऋषियों ने परिस्थिति अनुसार ग्रहों की अवस्था सुनिश्चित करके फलादेश के नियम निर्धारित किए हैं। इन स्थितियों में दूसरे तरह की अवस्थाओं का विशिष्ट महत्व है। मनुष्यों के जीवन पर दिनचर्या पर आधारित 12 अवस्थाएं मानी गई है। फलित में इनका काफी महत्व है और इसकी भविष्यवाणी भी सरल व सटीक होती है। इसे मनोदशा अवस्था का नाम भी दिया जाता है। इन अवस्थाएं को निकालने की साधना विधि कुछ इस प्रकार से हैं : 

  • ऐसे निकाली जाती है ग्रह अवस्था साधना विधि:- 

जो ग्रह जिस नक्षत्र पर हो, उसकी संख्या मालूम करें। इसके बाद ग्रह की संख्या में नक्षत्र की संख्या से गुणन करें। जो परिणाम आए उसे ग्रह के अंशों से गुणा कर दें। गुणनफल में जन्म इष्ट घटे हुए जन्म नक्ष की संख्या और जन्म के लग्न की संख्या को जोड़ दें। इसके जोड़ को 12 से भाग देने पर जो शेष आए उस अंक के अनुसार अवस्था निर्धारित हो जाएगी। 

  • ग्रहों की संख्या इस प्रकार है:- 
ग्रह संख्या 
सूर्य 01 
चंद्र 02
मंगल 03
बुध 04
गुरु 05
शुक्र 06
शनि 07
राहु 08
केतु 09
  • नक्षत्रों की संख्या इस प्रकार है:-

अब हम बात कर लेते हैं नक्षत्रों की तो नक्षत्रों की संख्या इस प्रकार है। 

नक्षत्रों संख्या 
अश्विनी 1. 
भरणी2.
कृतिका3.
रोहिणी 4.
मृगशीर्ष 5.
आर्द्रा 6.
पुनर्वसु7.
पुष्य 8.
आश्लेषा 9.
मघा10.
पूर्वाफाल्गुनी11.
उत्तरा फाल्गुनी 12.
हस्त 13.
चित्रा14.
स्वाति15.
विशाखा 16.
अनुराधा17.
ज्येष्ठा 18.
मूल 19.
पूर्वाषाढ़ा 20.
उत्तराषाढ़ा 21.
श्रवण22.
धनिष्ठा 23.
शतभिषा24.
पूर्वाभाद्रपद25.
उत्तराभाद्रपद 26.
रेवती27.
  • उदाहरण से समझें अवस्था के लिए साधन विधि:-
  1. यदि सूर्य की उत्ताषाढ़ा नक्षत्र की संख्या 21 हुई तो उसके ग्रह सूर्य की संख्या को 1 से गुणा  किया जाएगा। ऐसा करने पर तो परिणाम 21 आएगा। अब इसे ग्रह अंश की संख्या 26 से गुणा किया जाए तो परिणाम 546 आएगा । 546 में जन्म इष्ट घटी 26 एवं जन्म नक्षत्र अनुराधा की संख्या 17 और जन्म लग्न की संख्या में 3 जोड़ दिया जाए तो परिणाम 592 आएगा। इस जोड़ को 12 से भाग करने पर शेष 4 यानी सूर्य प्रकाश अवस्था में होता है। आप इसी प्रकार से दूसरे ग्रहों की अवस्था भी मालूम कर सकते हैं। 
  2. जिस नक्षत्र में ग्रह हो उसकी संख्या में ग्रह की संख्या में गुणा करें। जो परिणाम आए उसे ग्रह की नवांश की क्रम संख्या से गुणा करें। परिणाम में इष्ट घटी, जन्म नक्षत्र की संख्या और जन्म लग्न की संख्या को जोड़ दें। योगांक को 12 से भाग दें और जो परिणाम आएगा, उस अंक के अनुसार ग्रहों की अवस्था होगी। 
  3. एक अन्य उदाहरण से समझें तो यदि सूर्य उत्तराषाढ़ा नक्षत्र की संख्या 21 है। ग्रह की संख्या 1 है। दोनों का गुणनफल 21 आएगा। इसमें ग्रह के नवांश क्रम 8 का गुणनफल 168 आएगा। इसमें इष्ट घटी 29 एवं नक्षत्र अनुराधा की संख्या 17 के साथ जन्म लग्न की संख्या 3 को जोड़ा जाएगा तो परिणाम 214 आएगा। अब इसे 12 से भाग दिया जाए तो शेषफल 10 आएगा यानी सूर्य नृत्यलिप्सा अवस्था में आएगा। 

टिप्पणी : बृहत् पराशर होरा शास्त्र के 45 वें अध्याय में महर्षि पराशर ने ग्रहों की अलग-अलग अवस्थाओं को स्पष्ट करते हुए विशिष्ट अवस्था को स्पष्ट करने की इसी दूसरी विधि का वर्णन करते हुए उन अवस्थाओं की उप अवस्थाओं को ज्ञात करने की विधि का उल्लेख किया है। 

इसके साथ ही ग्रहों की विशिष्ट अवस्था स्पष्ट करने की विधि में नवांश क्रम की संख्या की बजाय ग्रहों के अंश लेने की बात कही गई है। हालांकि यह धारणा बिलकुल गलत है। आचार्य बलभद्र ने बलभद्र होराशास्त्र के अध्याय 3 में स्पष्ट किया है कि नवांश क्रम संख्या लेना ही सबसे उचित तरीका है। 

षड्बल: उप विशिष्ट अवस्था 

  • आचार्यों ने विशिष्ट अवस्थाओं में सभी की तीन अवस्थाओं पर प्रकाश डाला है। 
  • इसे चेष्टा, विचेष्टा और दृष्टि कहते हैं। 
  • चेष्टा उप अवस्था में ग्रह का प्रभाव, विचेष्टा अवस्था में नगण्य और दृष्टि अवस्था में मध्यम बताया गया है। 

ग्रह उप अवस्था ज्ञान : 

ग्रहों की विशिष्ट अवस्था के अंक को उसी अंक से गुणा कर दें। जो परिणाम आएगा उसमें जातक के नाम के पहले शब्द के मान अंक को जोड़ दें। अब आए परिणाम को 12 से भाग दें। जो शेष आए उसे ग्रह योजक से जोड़ दें। योगांक को 3 से भाग करें। यदि शेष में 0 आए तो इसे विचेष्टा, 1 आए तो दृष्टि अवस्था और 2 बचे तो इसे चेष्टा अवस्था माना जाएगा। 

अंक मान : 

1 : अ, क, च, ए, ध, भ, व

2ः इ, ख, ज, न, म, श

3ः उ, ग, झ, त, प, य, ष

4ः ऐ, घ, ट, थ, फ, र, स

5ः ओ, के, द, ब, ल और ह 

चलिए अब सभी ग्रहों के विशिष्ट अवस्था फलादेश पर डालते हैं एक नज़र: 

 

षड्बल: 9 ग्रहों का 12 अवस्थाओं में फलादेश 

  1. सूर्य अवस्था फल : 
  • नियमानुसार अगर सूर्य कुंडली में शयनावस्था में हो तो अपच, पित्त शूल, पांवों में सूजन, गुदा रोग, दिल की बीमारी होती है।
  • उपवेशन अवस्था में हो तो मुकदमे, बीमारी, मजदूर, दुष्ट, लापरवाह होता है। 
  • यदि कुंडली में सूर्य नेत्रपाणि में 5,7,9,10 भाव में हो तो धन, सुख और ज्ञान आता है। जबकि इससे अलग अन्य भावों में हो तो क्रूरता, ईर्ष्या और गुस्सा लाता है। 
  • सूर्य प्रकाशन अवस्था में हो तो धार्मिक, सुखी, राजसी और दानी बनाता है। 
  • गमन अवस्था में हो तो पांवों की बीमारी, नींद की बीमारी और सदा बाहर रहने वाला होता है। 
  • आगमन अवस्था में हो तो कंजूस, व्याभिचारी और भ्रष्ट मति का होता है। यदि सूर्य 7,12 वें स्थान पर हो तो पत्नी और पुत्र का नाश हो जाता है।
  • सूर्य यदि सभा वास में हो तो सदाचारी, विद्वान और कुशल होता है।
  • आगम अवस्था में हो तो दुखी, कुरुप किन्तु अमीर होता है। 
  • भोजनावस्था में सूर्य हो तो जोड़ों और सिर में दर्द, दुराचारी, धन, पुत्र, स्त्री का नाश होता है। 
  • नृत्यलिप्सा में हो तो धनवान, सुंदर, चतुर लेकिन हृदय, सिर और पेट रोग से पीड़ित होता है। 
  • कौतुक अवस्था में सूर्य हो तो वाचाल, पत्नी, पुत्र का सुख लेकिन त्वचा रोग और जातक क्रोधी होता है। अगर सूर्य 5,7 वें भाव में हुआ तो पहली संतान और स्त्री की हानि होती है। षष्ठम भाव में हो तो शत्रुओं का विनाश होता है। 
  • निद्रावस्था में हो तो जातक गरीब, विकलांग, लिंग और गुदा का रोगी होता है। 

 

  1. चंद्रावस्था फल : 
  • शयनावस्था में जातक कामुक, सर्दी पीड़ित, स्वाभिमानी, धन नाशक होता है। चंद्र लग्न में हो तो यौन रोग होता है। कृष्ण पक्ष का चंद्रमा हो तो दिखावा करने वाला, भुक्खड़, निंदक और लालची होता है।
  • उपवेशन अवस्था में चंद्रमा हो तो रोगी, गरीब, धूर्त, अनिष्टकारी होता है। 
  • नेत्रपाणि अवस्था में चंद्रमा हो तो लंबी बीमारी, कुकर्मी, वाचाल व दुष्ट होता है। 
  • चंद्रमा यदि प्रकाशनावस्था में शुक्ल पक्ष की अष्टमी के बाद का जन्म हो तो धनी, बलवान, धार्मिक होता है। यदि जन्म कृष्ण पक्ष के बाद हो तो कम फल प्राप्त होता है। 
  • गमन अवस्था में अगर कृष्ण पक्ष में जन्म हो तो क्रूर, गरीब, नेत्र रोग होता है। शुक्ल पक्ष में जन्म हो तो भयभीत किंतु फल कृष्ण पक्ष के विपरीत होता है। 
  • आगमन अवस्था में हो पांव में बीमारी, छिपा हुआ पापी, मायावी, खुद में मस्त होता है। 
  • सभा वास अवस्था में हो तो इज्जतदार, धार्मिक और दानी स्वभाव का होता है। 
  • आगम अवस्था में हो तो वाचाल किंतु धार्मिक होता है। चंद्रमा कृष्ण पक्ष का हो तो दो पत्नियों और अधिक पुत्रियों का सुख प्राप्त होता है। 
  • भोजन अवस्था में चंद्रमा पुष्ट हो तो धन सुख, स्त्री सुख और वाहन सुख प्राप्त होता है और चंद्रमा कमजोर हो तो पानी और सांप से भय होता है। 
  • नृत्य लिप्स में चंद्रमा दीर्घ हो तो ताकतवर, दानी, भोगी,प्रतिष्ठित, कलाप्रेमी होता है।
  • कौतुक अवस्था में हो तो धनवान, पुत्रवान, राज तुल्य, विद्वान होता है। 
  • निद्रावस्था में चंद्र हो तो पापी, रोगी, पुत्र शोक होता है। चंद्र दशम में हो तो ऐसा होता है अन्यथा कम होता है। 5वें और 7वें भाव में चंद्र शुभ फलदायक होता है। राहु में हो तो बहुत दोष होते हैं। 
  1. मंगल अवस्था फल :
  • मंगल यदि कुंडली में शयनावस्था में हो तो जातक को चोट पहुंचती है। लग्न में हो तो त्वचा रोगों से पीड़ित, पंचम में हो तो प्रथम संतान का नाश, सप्तम में हो पत्नी का नाश होता है। 5वें और 7वें भाव में हो तो शत्रु दृष्ट और शनि में राहु युक्त को हाथ,सिर या कान कटने के योग होते हैं। 
  • उपवेशन अवस्था में हो जातक धनी किंतु पापी और निकृष्ट होता है। लग्न में हो तो जातक का यही फल होता है। 9वें या 10वें भाव में मंगल हो तो स्त्री और पुत्र का नाश होता है।
  • नेत्रपाणि में मंगल लग्न में हो तो परिवार द्वारा त्याग दिया जाता है। दुखी और दरिद्र होता है। द्वितीय और सातवें भाव में हो तो पत्नी की मृत्यु होती है। अन्य भावों में सुख प्राप्त होता है। 
  • प्रकाशन अवस्था में हो तो धनवान, बुद्धिमान, बायीं आंख का रोग, भयंकर चोट खाने वाला किंतु तुनकमिजाजी होता है। यदि मंगल पापयुक्त हुआ तो पापी एवं 5वें और 7वें भाव में हुआ तो स्त्री और पुत्र की हानि होती है। 
  • गमन अवस्था में पत्नी से कलह, गरीबी, गुदा रोग, शारीरिक चोट होता है। 
  • आगमन अवस्था में मंगल यदि कुंडली के लग्न में हो तो छोटी नौकरी, वाचाल, स्त्री गुणों वाला, दंत, सिर, नेत्र व त्वचा का रोग होता है। हालांकि इस अवस्था का फल शुभ तो होता है, किंतु जातक अनेक छोटी-छोटी बीमारियों से ग्रस्त रहता है। 
  • सभावास में मंगल हो तो धनवान, धैर्यवान, धार्मिक, उच्च मनोबल युक्त होता है। मंगल उच्च का हुआ तो ऐसे फल प्राप्त होते हैं। मंगल 9वें और 5वें भाव में हो तो भाग्यहीन और विद्याहीन होते हैं। दूसरे जगहों पर मंगल कमजोर हो तो सभा में सम्मान तो मिलता है लेकिन बुढ़ापे में पुत्र से दूर रहना पड़ता है। मंगल बलशाली हुआ तो मंगल ही मंगल होता है। 
  • आगम अवस्था में मंगल हो तो जातक दानी, भोगी, प्रतिष्ठा पाने वाला लेकिन कमजोर स्वास्थ्य का होता है।
  • भोजन अवस्था में मंगल बली हो तो मिष्ठान्न प्रेमी, धनी किंतु अपमानित और तिरस्कृत जीवन जीने वाला होता है। यही स्थिति पंचम और अष्टम भाव में हो तो पशु से मृत्यु होती है। 
  • नृत्य लिप्सा में हो तो सरकारी पक्ष से लाभ, सुख प्राप्त होता है. गुणी और भोगी होता है। मंगल 12वें भाव में हुआ तो पुत्र की हानि होती है। 8वें या 9वें भाव में हुआ तो दुख मिलता है। 1,2,7,10वें भाव में हुआ तो मंगल सुखदायक होता है। 
  • कौतुक अवस्था में अधिक कन्या होती है, दो पत्नियां होती है। संपत्ति और मित्रों में वृद्धि होती रहती है। 
  • निद्रावस्था में जातक भ्रष्ट, मूर्ख, निर्धन और क्रोधी होता है। यदि पांचवें और सातवें स्थान में हो तो संतान दुख होता है। मंगल और राहु की युति प्रथम संतान की हानि करते हैं। 
  1. बुधावस्था फल : 
  • शयनावस्था में बुध, मिथुन व कन्या में हो तो भुक्खड़, विकलांग और छोटी आंखां वाला होता है। अन्य राशियों में हो तो लंपट होता है।
  • उपवेशन अवस्था में हो वाचाल, चतुर, गुणी, कवि, सदाचारी और गोरा होता है। अगर बुध शत्रु दृष्ट या पाप युक्त हो तो पापी होता है। अग बुध मित्र युक्त अथवा स्वग्रही हो तो सभी प्रकार के सुख मिलते हैं।
  • नेत्रपाणि अवस्था में हो तो पांव में रोग, विद्याहीन और भिक्षुक जीवन होता है। पुत्र का नाश होता है। बुध पंचम भाव में हो तो स्त्री और पुत्र के सुख से वंचित होता है।
  • प्रकाशन अवस्था में हो तो दानी, विद्वान और धर्मग्रंथों का ज्ञाता होता है। 
  • गमनावस्था में हो तो लालची, स्त्री का गुलाम, कुशल, योगी और दुष्ट होता है। ऐसे जातक कामुक, वाचाल, दुखी और दंत रोग से पीड़ित होते हैं। 
  • आगमन अवस्था में पानी और सर्प से डर, बेहाल, व्यापारी व स्त्री सुख से रहित होता है। 
  • सभावास अवस्था में धनवान, पुण्यात्मा, धार्मिक और लोकप्रिय होता है। अगर बुध 5वें और 12वें भाव में हो तो कन्या संतान अधिक होती है।। सप्तम में हो तो सब कुछ प्राप्त हो जाता है। ऐसे जातक सांवले, दबंग और त्वचा रोग से पीड़ित होते हैं। 
  • आगम अवस्था में गलत तरीके से धन प्राप्ति, मूत्र रोगी, दो पुत्रों वाले व पापी होते हैं। 
  • भोजन अवस्था में धन हानि, राजमद, सिर के रोग, जलनशील, चंचल चित्त वाले और वाद विवाद से घिरे रहते हैं।
  • नृत्यलिप्सा अवस्था में धनी,सुखी, प्रसन्न, कवि, कलाकार, विद्वान, वाहनों का मालिक और वेश्या प्रेमी होता है। 
  • कुंडली में बुध यदि कौतुक अवस्था में हो तो संगीत प्रेमी, त्वचा रोग और सबका प्रिय होता है। बुध यदि सातवें और दसवें भाव में है तो अनेक कन्याओं वाला और पुत्रहीन होता है। बुध यदि सातवें और नौवें भाव में है तो वेश्या प्रेमी होता है। नौवें और दसवें भाव में बुध है तो मंगलकारी है। 
  • निद्रावस्था में बुध दीर्घ रोग का कारक है। अल्पायु, धन की हानि और दुखी करता है। एक या दस भाव में हो अशुभ फल प्राप्त होते हैं। अन्यत्र स्थानों पर शुभ फल की प्राप्ति होती है। 
  1. गुरु अवस्था फल :
  • शयनावस्था में गुरु हो तो दुखी, अधिक सुंदर, लंबी ठुड्डी, शत्रु पीडित, कमजोर आवाज होती है। अगर 1,5,9,10 भाव में हो तो विद्वान, धन और सदाचार आता है। 
  • उपवेशन अवस्था में हो तो दुखी, वाचाल, शत्रु पीड़ित होता है। मुंह, हाथ और पांव में बीमारी होती है। 2,3,11, 12 भाव में हो तो जातक गुणी और कलाप्रेमी होता है। 
  • नेत्रपाणि अवस्था में गुरु हो तो विध्न बहुत आते हैं। छोटे वर्ग से प्रेम होता है। संगीत, नृत्य प्रेमी होता है। सिर में रोग होता है। लक्ष्मी दूर रहती हैं। अगर गुरु 6,8,9 भाव में हो तो शत्रुओं का विनाश होता है एवं मृत्यु पवित्र तीर्थ में होती है। 
  • प्रकाशन अवस्था में हो तो धनवान और गुणवान होता है। 1,10 भाव में गुरु हो तो जातक राजस्व प्राप्त करता है। हर जगह प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। यदि गुरु नीचे हो तो गुप्त रोग होता है। ?
  • कुंडली में उपदत हित गुरु अगर गमन अवस्था में हो तो जातक लालची, पापी, दूसरे की नौकरी करने वाला किंतु अमीर होता है। यदि गुरु 1,3,4,6,8,9,11 व 12 वें भाव में हो तो उल्टे परिणाम मिलते हैं। 
  • आगमन अवस्था में गुरु हो तो सुंदर व सुशील पत्नी, गुण, धन, लोकप्रियता प्राप्त होती है। 
  • सभा वास अवस्था में हो तो राजा का सहयोगी, विद्वान, वक्ता, धनवान होता है। यदि गुरु 12वें भाव में हो तो हानिकारक एवं दुखदायी होता है। 
  • आगम अवस्था में हो तो सुशील पत्नी, प्रतिष्ठा, पद, पैसा प्राप्त होता है। 
  • भोजन अवस्था में हो तो मांसाहारी, महत्वाकांक्षी एवं कामुक होता है। 5वें, 9वें भाव में हो तो संतान सुखी होते हैं। दूसरे भावों में हो तो अनेक प्रकार के रोग होते हैं। 
  • नृत्यलिप्सा अवस्था में हो तो धनवान, धर्म के जानकार, राजकाज के जानकार होते हैं। पुत्रवान, धनवान व कुशल वक्ता होते हैं. अगर गुरु 1,5,9,10 में भाव में न हुआ तो साधारण फल प्राप्त होते हैं। 
  • कौतुक अवस्था में गुरु होता है तो जातक धनी, कुश वक्ता, पुत्रवान और ऐश्वर्यशाली होता है लेकिन यदि गुरु 6,9,12 भाव में हो तो फल साधारण होते हैं। 
  • निद्रा अवस्था में गुरु हो जो गरीबी, मूर्खता आती है। अगर गुरु 1,2,8 वें भाव में हो तो जातक धनी होता है। 
  1. शुक्र अवस्था फल :
  •  यदि शयन अवस्था में शुक्र हो तो जातक को दंत विकार होता है। निर्धन, दुराचारी और क्रोधी होता है। अगर ऐसा 7 या 11 भाव में ऐसा हो तो सभी प्रकार के सुख प्राप्त होते हैं। दूसरे भाव में हो तो राजयोग, धनयोग होता है लेकिन पुत्र का नाश हो जाता है। 
  • अगर शुक्र उपवेशन अवस्था में होता है तो धनवान, बलवान, धार्मिक, दाहिने भाग में चोट और जोड़ो में दर्द का कारक होता है। अगर यह शुक्र उच्चवत, मित्रगत अथवा स्वगृही अवस्था में हो तो अच्छा फल प्राप्त होता है। 
  • नेत्रपाणी अवस्था में शुक्र 1,7, 10 वें भाव में हो तो जातक दृष्टिहीन हो जाता है। दशम में हो तो आंखों का नाश हो जाता है। दूसरे स्थानों पर हो तो साहस, स्वाभिमान, राज्यकर्मी और महल का स्वामी बनाता है। 
  • प्रकाशन अवस्था में शुक्र हो तो संगीत का पारखी, धनवान, वाहन का मालिक और कलाप्रेमी होता है। यदि 1,2,7,9 वें भाव में उच्च हो तो राजसत्ता प्राप्त होता है। 
  • गमनावस्था में हो तो मातृशोक होता है। बचपन में ही रोग, वियोग का सामना करना पड़ता है। 
  • आगमन अवस्था में हो तो धनी, प्रसिद्ध व पैरों में रोग होता है।
  • सभावास अवस्था में राजा का विश्वासी, धनवान, कुशल लेकिन दर्द से पीड़ित होता है। यदि शुक्र शत्रु युक्त होता है तो मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। 
  • आगम अवस्था में शुक्र धन हानि, भयभीत, पुत्र हानि व स्त्री सुख में कमी करता है। 2,4,8,10 भाव में हो तो शुभ फल मिलता है। 
  • भोजन अवस्था में कमजोर पाचन, नौकरी और धनवान बनाता है। 
  • नृत्यलिप्सा अवस्था में हो तो जातक विद्वान, वक्ता, प्रसन्नचित, कामुक, स्त्री सुख प्राप्त करने वाला होता है। किंतु शुक्र यदि नीच गत हो तो महामूर्ख होता है। 
  • कौतुक अवस्था में शुक्र हो तो जातक लीक से हटकर काम करने वाला, सदैव प्रसन्न रहने वाला, मनोबल का ऊंचा होता है। 
  • शुक्र यदि निद्रा अवस्था में हो तो जातक किसी का नौकर होता है। अक्सर बेचैन रहता है। दूसरों की निंदा करता है। शुक्र 5,7वें भाव में हो तो अपना नाश खुद कर लेता है। 
  1. शनि अवस्था फल : 
  • ऐसे जातक सोने की अवस्था में भूख, प्यास झेलते हैं। जवानी में रोगों का सामना करते हैं और फिर सुखी हो जाते हैं। 
  • उपवेशन की अवस्था में जातक के पैरों में सूजन हो जाता है। वह मोटा हो जाता है। त्वचार में रोग हो जाता है और राजपीड़ित हो जाता है।
  • नेत्रपाणि की स्थिति में शनि हो तो मूर्ख इंसान भी विद्वान घोषित हो जाता है। पित्त का रोगी हो जाता है लेकिन संपत्तिशाली भी होता है। उसे सदैव आग और पानी से भय लगता है। सिर में और जोड़ों में दर्द रहता है। 01 से10 भाव में ऐसा शनि ग्रह मौजूद हो तो धनागमन कम हो जाता है। 
  • प्रकाशन की अवस्था में जातक राजसत्ता का विश्वासी होता है, धार्मिक विचारों का होता है किन्तु ऐसा शनि भाव अगर 01,07 भाव में रहता है तो समूचे परिवार का विनाश हो जाता है। 
  • गमन अवस्था में अगर शनि हो तो जातक धनवान, पुत्रवान, गुणवान और दानवीर होता है। 
  • अगर शनि आगमन अवस्था में हो तो जातक गुस्सैल, कंजूस, दांत पीसने वाला और पैर का रोगी हो जाता है। 
  • शनि सभावस्था में हो तो जातक को धन और पुत्र की प्राप्ति होती है। ऐसे जातक जिज्ञासु प्रवृति के होते हैं। वह रत्नों से युक्त होते हैं। यह भाव अगर छठवें में हो सर्वनाश के संकेत हैं। 
  • जिस जातक का शनि आगम अवस्था में होता है, वह मरीज और गुस्सैल होता है। अगर ऐसा भाव शनि लग्न में होता है तो जातक के सहोदर की मृत्यु हो जाती है। जातक को सदैव सांप का भय समाया रहता है। 02,03,05,07 भावों में इस प्रकार शनि हो तो क्रमशः धन, भाई,पुत्र और स्त्री का सुख प्राप्त होता है। किंतु अगर नवम भाव में ऐसे शनि हो तो हर काम में विघ्न आता है। 
  • शनि भोजनावस्था में हो तो बवासीर होता है। पाचन क्रिया में समस्याएं आती हैं। दिल के रोगों का सामना करना पड़ता है लेकिन उच्चगत होता है तो सभी प्रकार के सुख प्राप्त होते हैं। 
  • अगर नृत्यलिप्सा स्थिति में हो तो जातक धनवान, सुखी और संपत्तियों का सृजन करने वाला होता है। स्वभाव से धार्मिक होता है किंतु पंचम में हो तो संतान की मृत्यु हो जाती है। 
  • अगर शनि कौतुक अवस्था में हो तो जातक सत्ता के निकट रहता है। विद्वान, धनी, भोगी, कलाकार और चतुर होता है हालांकि अगर यह 05,07,09 एवं 10 भाव में होता है तो हर जगह सफलता प्राप्त होती है। 
  • अगर शनि निद्रावस्था में हो तो जातक धनवान, विद्वान, ईमानदार, पुत्रवान होता है। ऐसे जातकों को दो दो महिलाओं का सुख मिलता है लेकिन नेत्र और पित्त का रोग होता है। अगर शनि दशम में हो तो कारोबार बर्बाद हो जाता है। त्रिकोण में उच्चगत या केंद्र में स्वगृही भाव में हो तो हर तरफ से शुभ फल ही प्राप्त होते हैं। 
  1. राहु अवस्था फल : 
  • शयन की अवस्था में राहु मिथुन, वृषभ और सिंह राशि को छोड़कर स्थित होता है तो दुख और क्लेश होता है और यदि इन राशियों में होता है तो सुख प्राप्त होता है। 
  • उपवेशन की अवस्था में हो तो त्वचा में रोग होता है। धन का नुकसान होता है और पांव में कष्ट होता है। 
  • नेत्रपाणि की स्थिति में होता है तो जातक को आंखों में बीमारी हो जाती है। धन का नुकसान होता है। कारोबार में नुकसान होता है। ऐसे जातकों को औरतों की तरह व्यवहार करने की आदत होती है और वो बोलते बहुत ज्यादा हैं। 
  • अगर राहु प्रकाशन अवस्था में हो तो जातक देश, विदेश घूमने का शौकीन, उत्साही व राजकीय सेवाओं में हो सकता है। अगर कर्क अथवा सिंह राशि में हो तो भयंकर चोट का शिकार हो सकता है। 
  • अगर राहु गमनावस्था में है तो जातक के बहुत सारे बच्चे होते हैं। ऐसे लोग विद्वान, धनवान, प्रतिष्ठित लेकिन रोगों से पीड़ित होते हैं। 
  • आगमन अवस्था में जातक गुस्सैल, धन की हानि वाला, कंजूस, धूर्त एवं भ्रष्ट बुद्धि वाला होता है। 
  • सभावास की अवस्था में अगर राहु हो तो जातक विद्वान, कंजूस, गुणवान और धार्मिक स्वभाव का होता है। ऐसे जातकों के 01,05 और 10 भाव में ऐसा राहु हो तो पत्नी, पुत्र और पैसे का नाश हो जाता है। 
  • अगर आगमावस्था में हो तो जातक दुखी और पीड़ित ही रहता है। 
  • भोजन अवस्था में राहु हो तो भोजन से परेशानी होती है। जातक विकलांग हो सकते हैं। मंदबुद्धि हो सकते हैं। पत्नी और पुत्र के सुख से वंचित हो जाता है। अगर 01 या 02 भाव में हो तो अच्छा संस्कारी जातक भी पापी हो जाता है। 07 या 10 के भाव में हो तो स्त्री हंता हो जाता है। 
  • अगर नृत्यलिप्सा अवस्था में लग्नगत राहु हो तो किसी बड़ी बीमारी, धन और धर्म के नुकसान का संभावना होती है। आंखों को नुकसान होता है। दूसरे भाव में पत्नी, पुत्र और पैसे का सुख प्राप्त होता है। 
  • कौतुकावस्था में राहु 05,07 एवं 10 वें भाव में होता है तो जातक गुणवान, धनवान और पित्त का रोगी होता है। दूसरे भाव में हो तो दुख भोगना पड़ता है। 
  • निद्रावस्था में शोक से पीड़ित, अमीर और पत्नी, पुत्र से संपन्न होता है।
  1. केतु अवस्था फल : 
  • शयनावस्था में मेष, वृषभ, मिथुन और कन्या राशि में धन का योग बनता है और दूसरी ओर रोग का योग बनता है। 
  • उपवेशन अवस्था में केतु राजा व दुश्मन से त्रस्त बताता है और त्वचा को बीमार करता है। 
  • नेत्रपाणी अवस्था में केतु हो तो दुख का प्रतीक है। राजा से पीड़ित है। 
  • प्रकाशन अवस्था में केतु जातक को धार्मिक, धनवान और प्रवासी बनाता है। 
  • केतु यदि गमन अवस्था में हो तो जातक धनवान, गुणवान और पुत्रवान होता है। 
  • सभा वास अवस्था में केतु वाचाल, लालची, निर्दयी, अहंकारी और धूर्त बनाता है। 
  • आगमन अवस्था में केतु हो जातक पापी हो जाता है। भाइयों से विवाद करता है और रोगी हो जाता है। 
  • भोजन अवस्था में केतु जातक को दरिद्र, भटकने वाला और भूखा बनाता है। 
  • केतु यदि नृत्यलिप्सा अवस्था में हो तो विकलांगता आती है। आंखों में चिपचिपापन आता है। विचार और व्यवहार में धूर्तता आ जाती है। 
  • निद्रा अवस्था में केतु धन धान्य से संपूर्ण और कलाप्रेमी, कलाकार बनाता है। 
  • कौतुक अवस्था में केतु हो तो जातक व्यभिचारी, वेश्याओं, नर्तकियों का प्रेमी बन जाता है। 

शुभ व पाप ग्रह की अवस्था व सामान्य फल 

  • उस भाव का नाश हो जाता है, जहां पाप ग्रह भोजन अवस्था में बैठे होते हैं। 
  • उस भाव की वृद्धि होती है जहां शुभ ग्रह शयनावस्था में विद्यमान होते हैं। 
  • निद्रावस्था में यदि पाप ग्रह सप्तम में शुभ होते हैं किंतु दूसरी जगह शुभ या, दृष्ट या पाप युत हो तो पत्नी नाशक हो जाते हैं। 
  • पंचम भाव में निद्रा या शयनावस्था में पाप ग्रह शुभ है किंतु यह पाप ग्रह सर्वोच्च या स्वक्षेत्री हो तो संतान का नाश होता है। शुभ दृष्टि होने पर भी एक संतान का नाश हो जाता है। 
  • पापग्रह अष्टम में शयन अथवा निद्रा अवस्था में होते हैं तो अकाल मृत्यु हो जाती है। 
  • पाप ग्रह दशम में भोजन या शयनावस्था में हो तो भाग्यहीन और दरिद्र बनाते हैं। 
  • शुभ ग्रह दशम में निद्रा अथवा गमन अवस्था में भी हो दुख लेकर आते हैं। 
  • दशम में चंद्रमा प्रकाश अथवा कौतुक अवस्था में हो तो राजयोग का पात्र बनाते हैं। 

षड्बल: ग्रहां की विशेष दृष्टि और फल 

जातक की जन्मकुंडली में ग्रह कहीं भी विद्यामन हो, वह दूसरे ग्रहों पर दृष्टि डालता है तो उस दृष्टि का शुभ और अशुभ प्रभाव पड़ता है। आप भी अपनी कुंडली के ग्रहों की अवस्था जानकार उनकी दृष्टि किस ग्रह या भाव पर कैसी है, इसके अशुभ प्रभावों को जान सकते हैं। जब तक आप यह जान नहीं पाएंगे तब तक आप उनके लिए उपाय कैसे कर पाएंगे ? अतः यह जानना जरूरी है कि किस ग्रह की कौन सी दृष्टि अशुभ होती है। 

दृष्टि : यहां पर दृष्टि का आशय प्रभाव से है। जिस प्रकार सूर्य की किरणें धरती पर कभी सीधी आती है तो कभी तिरछी। ऐसा तभी होता है जब सूर्य मकर रेखा, कर्क रेखा या भूमध्य रेखा पर होता है। ठीक इसी प्रकार से अलग अलग ग्रहों का अलग अलग प्रभाव या दृष्टि होता है। 

आपकी जन्म कुंडली में कैसी है ग्रहों की विशेष दृष्टि और कितने ख़ास रहेंगे आपके लिए उनके फल? अभी हमारे विशेषज्ञों से बात कर कॉल पर जानें!

षड्बल: किस ग्रह की कौन सी दृष्टि होती है ? 

  • सभी ग्रह अपने स्थान से सप्तम स्थान पर सीधी दृष्टि रखते हैं। सीधी अर्थात पूर्ण दृष्टि। पूर्ण से आशय है कि वह 180 डिग्री से अपने सातवें घर में भाव या खाने में देख रहा है। पूर्ण दृष्टि का मतलब होता है पूर्ण प्रभाव। 
  • शनि ग्रह की बात करें तो यह सातवें स्थान के अलावा तीसरे और दसवें स्थान को भी आंशिक रूप से देखता है। मंगल चौथे और आठवें स्थान पर पूर्ण दृष्टि रखता है। गुरु पांचवें और नवम स्थान पर पूर्ण दृष्टि रखते हैं। 
  • वहीं प्रत्येक ग्रह अपने स्थान से तीसरे और दसवें स्थान पर आंशिक दृष्टि रखते हैं। 
  • कई विद्वानों ने राहु और केतु की दृष्टि को भी माना है। राहु और केतु अपने स्थान पांचवें, सातवें और नवम स्थान पर पूर्ण दृष्टि रखते हैं। 
  • सूर्य और मंगल की दृष्टि उर्ध्व होती है। बुध और शुक्र की तिरछी होती है। चंद्रमा और गुरु की समान एवं राहु और शनि की दृष्टि नीच होती है। 

वक्री ग्रह व दृष्टि 

  •  चंद्रमा और सूर्य को छोड़कर सभी ग्रह वक्री होते हैं। वक्री का अर्थ होता है उल्टी दिशा में गमन करना। 
  • जब ग्रह वक्री होते हैं तब उनकी दृष्टि का प्रभाव अलग होते हैं। 
  • यदि कोई ग्रह उच्च राशिगत वक्री हो तो नीच राशिगत होने का फल देता है। 
  • कोई ग्रह वक्री अपनी उच्च राशिगत होने के बराबर फल देता है। 
  • वक्री ग्रह से संयुक्त ग्रह के प्रभाव में मध्यम स्तर की वृद्धि होती है। 
  • जब कोई नीच राशिगत ग्रह वक्री हो जाता है तो अपनी वह स्वयं के उच्च राशि में स्थित होने का फल प्रदान करता है।
  • ठीक इसी तरह से अगर कोई उच्च राशिगत ग्रह नवमांश में नीच राशिगत हो जाए तो वह नीच राशि का फल प्रदान करता है। 
  • यहां यह भी जानना जरूरी है कि अगर कोई शुभ ग्रह अथवा पाप ग्रह नीच राशिगत होता है लेकिन नवांश में अपनी उच्च राशि में स्थित होता है तो उसे उच्च राशि का ही फल प्राप्त होता है। 

षड्बल: फलादेश के लिए साधारण नियम : 

लग्नों की अवस्था के मुताबिक ग्रहों का शुभ और अशुभ नियम और बलाबल भी परिवर्तित होता रहता है। जैसे सिंह लग्न के लिए शनि अशुभ होता है पर तुला लग्न के लिए बेहद शुभ माना जाता है। चलिए जानें फलादेश के लिए कुछ शारान ज्योतिष नियम:-

  • जिस ग्रह पर शुभ ग्रहों की दृष्टि होती है, वह शुभ फल दायक होता है। 
  • ग्यारहवें भाव पर सभी ग्रह शुभ होते हैं और केतु विशेष फल देने वाला होता है।
  • कुंडली में त्रिकोण के स्वामी सदैव शुभ फल प्रदान करते हैं।
  • केंद्र के स्वामी 01-04-07-10 यदि शुभ ग्रह हो भी तो शुभ फल प्रदान नहीं करते और अशुभ ग्रह शुभ हो जाते हैं। 
  • कुंडली में 03-06-11 वे भाव के स्वामी अगर पाप ग्रह हो तो लाभ देंगे और शुभ ग्रह हो तो नुकसान करेंगे। 
  • कुंडली में  06-08-12 वे भावों के स्वामी जहां भी होंगे वहां पर नुकसान करेंगे। 
  • षष्ठम भाव का गुरु दसवां मंगल और आठवां शनि बेहद शुभ फल देता है। 
  • द्वितीय, पंचम एवं सप्तम भाव में अकेले गुरु केवल नुकसान करता है। केंद्र में सप्तम भाव में शनि अशुभ होता है जबकि अन्य दूसरे भावों में शुभ फल प्रदान करता है।

सभी ज्योतिषीय समाधानों के लिए तुरंत क्लिक करें: मंगल भवन

Related Post

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *